Pratidin Ek Kavita

अचानक नहीं गई माँ | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

अचानक नहीं गई माँ 
जैसे चला जाता है टोंटी का पानी 
या तानाशाह का सिंहासन 
थोड़ा-थोड़ा रोज गई वह 
जैसे जाती है कलम से स्याही 
जैसे घिसता है शब्द से अर्थ

सुकवा और षटमचिया से नापे थे उसने 
समय के सत्तर वर्ष 
जीवन को कुतरती धीरे-धीरे 
गिलहरी-सी चढ़ती-उतरती 
काल वृक्ष पर

गीली-सूखी लकड़ी-सी चूल्हे की 
धुआँ देती सुलगती जलती

रात काटने के लिए 
परियों के किस्से 
सुनाती अँधेरे से लड़ने के लिए 
संझा-पराती के गीत गाती 
पृथ्वी और आकाश के पिंजरे में फड़फड़ाती 
बीमार घड़ी-सी टिक्-टिक् चलती

अचानक नहीं गई माँ 
थोड़ा-थोड़ा रोज गई 
जैसे जाती है आँख की रोशनी 
या अतीत की स्मृति ।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।