Pratidin Ek Kavita

शामिल होता हूँ | मलय

मैं चाँद की तरह
रात के माथे पर
चिपका नहीं हूँ,
ज़मीन में दबा हुआ
गीला हूँ गरम हूँ
फटता हूँ अपने अंदर
अंकुर की उठती ललक को
महसूसता
देखने और रचने के सुख में
थरथराते पानी में
उगते सूर्य की तरह
सड़क पर निकला हूँ
पूरे आकाश पर नज़र रखे,
भाषा की सुबह
मेरे रोम-रोम में
हरी दूब की तरह
हज़ार-हज़ार आँखों से खुली है
ज़मीन में दबा हुआ
गीला हूँ गरम हूँ
मैं शामिल होता हूँ तुम सब में
डूबकर चलता हूँ
रचता हूँ उगता हूँ
भाषा की सुबह में।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।