Pratidin Ek Kavita

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें | कृष्ण बिहारी नूर

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें
और फिर मानना पड़ता है ख़ुदा है मुझमें

अब तो ले दे के वही शख़्स बचा है मुझमें
मुझको मुझसे जो जुदा करके छुपा है मुझमें

जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जाएँ
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझमें

आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझमें

अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ ‘नूर’
मैं कहाँ तक करूँ साबित कि वफ़ा है मुझमें!

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।