Pratidin Ek Kavita


पुष्प की अभिलाषा - माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ। 
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ॥ 
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ। 
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ॥ 
मुझे तोड़ लेना वनमाली। 
उस पथ में देना तुम फेंक॥ 
मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने। 
जिस पथ जावें वीर अनेक॥ 

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।