Pratidin Ek Kavita

प्रजापति - राजेश जोशी

चीज़ों का हूबहू दिखना अपनी ही शक्ल में 
कविता में मुझे पसंद नहीं बिल्कुल 
मैं चाहता हूँ मेरा फटा-पुराना जूता भी दिखे वहाँ 
पूर्णिमा के पूरे चाँद की तरह 
एक साबुन की तरह दिखे मेरी आत्मा 
छोटी-छोटी विकृतियाँ और अंतर्विरोध भी दिखें वहाँ 
फूली हुई नसों वाले राक्षसों से इतने वीभत्स और दैत्याकार 
कि आसानी से की जा सके उनसे घृणा 
की जा सके नफ़रत 
मुझे पसंद हैं वे विदूषक जो मंच पर आने से पहले ही 
रँग लेते हैं अपना पूरा चेहरा 
मैं चाहता हूँ 
बेहद थका और ऊबा हुआ फ़ोरमैन भी जब अपने घर में घुसे 
तो बदल जाए तत्काल उसका चेहरा 
अपनी पाँच बरस की बेटी के पिता की तरह 
बदल जाएँ, बदल जाएँ लोगों के चेहरे 
जब वे मेरी कविता में आएँ 
हीरे की तरह चमकती हुई दिखें लोगों की 
बहुत छोटी-छोटी अच्छाइयाँ 
कि आत्महत्या करता आदमी पलट कर दौड़ पड़े 
जीवन की ओर चिल्लाता हुआ 
कुछ नहीं है जीवन से ज़्यादा सुंदर 
जीवन से ज़्यादा प्यारा 
जीवन की तरह अमर 
मैं चाहता हूँ 
कि कविता के भीतर फैली आसमान की टेबिल पर 
मैं जब सूरज के साथ चाय पी रहा होऊँ 
एक विशाल समुद्र की तरह दिखे 
मेरा कप। 

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।