कवि की आत्महत्या | देवांश एकांत
अभिनेता अभिनय करते-करते
मृत्यु का मंचन करने लगता है
आप उन्मत्त होते हैं अभिनय देख
पीटना चाहते हैं तालियाँ
मगर इस बार वह नही उठता
क्योंकि जीवन के रंगमंच में
एक ही ‘कट-इट’ होता है
कोई हँसते-हँसाते
शहर के पुल से छलाँग लगा देता है
और तब पिता के साथ
नवका विहार में आया लड़का जान पाता है
पानी की सतह पर मछलियाँ ही नहीं
आदमी भी तैरता है
हर वजन को अपनी हद में रखने वाला वैज्ञानिक
आत्मा के ख़ालीपन से दबकर मर जाता है,
कुछ घरों में उजाला सूरज से नही
कई दिनों बाद गरम रोटी की चमक से होता है
सुबह रात के जाने से नही
मजूर बाप के आधी रात लौटने से होती है
माफ़ कीजिए ये दरअसल घर नही हैं
संग्रहालयों में रखे चित्र की व्याख्या है
आपने यह चित्र जीवंत देखा क्या ?
मेरी आँखों का कालापन
शायद राख है काफ़्का के उन पत्रों की
जो उसने मिलेना को भेजने से पहले
अपनी हीनता के बोध में जला डाले होंगे
रात्रि के झींगुर नाद के मध्य
जब तुम कर रहे होगे
अपनी कविताओं में कांट छाँट
तुम अचानक पाओगे कि
मुक्ति का साधक मुक्तिबोध
सबसे अधिक बंधा था बेड़ियों में
ब्रह्मराक्षस आज भी करता है
नरक में उसका पीछा
देह में रक्त ही नही
प्रतीक्षा भी दौड़ती है
रक्तचाप से अधिक
प्रतीक्षा झँझोड़ती है
यह मैंने ड्योढ़ी पे बैठे उस दरवेश से जाना
बह गयी जिसकी प्रेमिका गाँव की बाढ़ में
जल्द लौटने का वादा कर
भीतर की एक-एक नस
थरथरा उठती है यह सोचकर कि
एक दिन नही होगी माँ, नहीं होंगे पिता
तब कौन पुकारेगा बेटा
तब कौन लेगा भूख का संज्ञान
यह सोचते-सोचते
हर रात मेरे भीतर का कवि
कर लेता है आत्महत्या।