Pratidin Ek Kavita

‘लौट आओ तुम’ | डॉ दामोदर खड़से

लौट आओ तुम 
कि काले बादलों की ओट में
सूरज अंधा हो गया था
और दिन 
चिकने फर्श पर
औंधे गिर पड़ा
लहूलुहान उसकी नाक 
और कटा फटा उसका मुंह
किससे करे शिकायत...
कि क्यों और कैसे फिसल पड़ा वह 
क्या सोच रहा था दिन
सूरज के बिना
तुम लौट आओ कि
अब दिन रास्ता भटक गए हैं
और शाम भी होने वाली
तुम लौट आओ कि 
काले बादल सिर्फ तुम्हीं से कतराते हैं
फिर सूरज निकलेगा
और दिन की चेतना लौटेगी
लौट आओ तुम
अब शाम होने वाली है!

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।