गायत्री | कुशाग्र अद्वैत
तुमसे कभी मिला नहीं
कभी बातचीत नहीं हुई
कहने को कह सकते हैं
तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानता
ऐसा भी नहीं कि एकदम नहीं जानता
ख़बर है कि इस नगर में नई आई हो
इधर एक कामचलाऊ कमरा ढूँढ़ने में व्यस्त रही
और रोज़गार की दुश्चिंताएँ कुतरती रहीं तुमको
रात के इस पहर
तुम्हारे नाम
कविता लिखने बैठ जाऊँ
ऐसी हिमाक़त करने जितना
तो शायद नहीं जानता
मेरा एक दोस्त
तुम्हारा नाम गुनता रहता है
जैसे कोई मंत्र गुनता हो
आज हम दोनों काफ़ी देर
तुम्हारे बारे में बतियाते रहे
बेसिर-पैर के अंदाज़े लगाते रहे
मसलन इस महानगर में
परांपरा के खित्ते से बाहर
दूब बराबर जगह खोजती लड़की का
जाने किसने रखा होगा
पारांपरिक-सी शक्ल वाला यह नाम
कहाँ से
आया होगा यह नाम―
वैदिक छंद से
या उस वैदिक मंत्र से
जिसे तुतलाते हुए याद किया
और अब भी जपता हूँ कभी-कभी
क्या पता तुम्हारे पुरखों के
वेदों को छू सकने की
वंचित इच्छा से आया हो
या फिर उस रानी से
जिससे मिसेज गाँधी के
अदावत के क़िस्से अख़बारों में
नमक-मिर्च के साथ शाया होते रहे
या तुम्हारे पिता की
इस ही नामराशि की
कोई प्रेयसी रही हो
और उसकी याद में…
तुम्हें नहीं पता
चलो कोई बात नहीं
संभव है
इस नामकरण के उपक्रम में
इतने विचार न शामिल रहे हों
किसी पंडित ने ‘ग’ अक्षर सुझाया हो
फिर किसी स्वजन की गोद में रखकर
कोई नाम देने को कहा हो
और जल्दबाज़ी में बतौर पुकारू नाम
यही रखाया हो
कहते हुए कि नाम का क्या है
नहीं जमा तो दाख़िले के बखत देखेंगे
कुछ भी रहा हो
बोलचाल से ग़ायब
‛त्र’ को बचाने के लिए
तो नहीं करेगा
कोई ऐसी क़वायद!