Pratidin Ek Kavita

अपराध | लीलाधर जगूड़ी 

जहाँ-जहाँ पर्वतों के माथे थोड़ा चौड़े हो गए हैं 
वहीं-वहीं बैठेंगे फूल उगने तक 

एक-दूसरे की हथेलियाँ गर्माएँगे 
दिग्विजय की ख़ुशी में मन फटने तक 

देह का कहाँ तक करें बँटवारा 
आजकल की घास पर घोड़े सो गए हैं 

मृत्यु को जन्म देकर ईश्वर अपराधी है 
इतनी ज़ोरों से जिएँ हम दोनों 
कि ईश्वर के अँधेरे को क्षमा कर सकें। 

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।