Pratidin Ek Kavita

मिठाई बनाने वाले | शाश्वत उपाध्याय 

जब दुनिया बनी
तो सबसे पहले बने मिठाई बनाने वाले
हाथों में भर भर के चीनी की परत
परत भी ऐसी वैसी नहीं
एकदम गूलर का फूल छुआ के
जितना खर्च हो, उतना बढ़े
उंगली के पोरों में घी का कनस्तर,
कनस्तर भी वही गूलर के फूलों वाला
आँखों में परख,
परख भी एकदम पाग चिन्ह लेने वाली
इतने सब के बाद
बोली तो मीठी होनी ही थी
सो भी है।
लेकिन कलेजा?
मठूस हलवाई कहीं का,
बचपन में ही काले रसगुल्ले की कीमत
आसमान पर रखे था
सात रुपया पीस
आते जाते स्कूल,
मन मार कर साइकिल चलाते लड़कों में,
नौकरी की पहली ललक तुम्हारे रसगुल्ले के रेट ने ही तो लगाई
सात रुपया पीस
रसगुल्ला है कि कलेजे का टुकड़ा तुम्हारे?
और समोसा,
वह भी हर साल एक रुपये महंगा
बहाना तो देखो,
महंगाई बढ़ रही
लौंगलत्ता तो ऐसे,
जैसे सोखा का लौंग डाले हो ओझइती करके
क्या सोचे हो?
कि शो-केश के उस पार की सारी मिठाई तुम्हारी बपौती हैं?
सो तो हैं।
लेकिन,
एक दिन जब होंगे लायक
तो ज़रूर देह में घुल चुकी होगी चीनी की परत।
जिंदगी उबले हुए आलू को सोख रही होगी।
और ज़बान में लड़खड़ाहट भी होगी।
फिर भी,
किसी दिन आ कर
तुम्हारी दुकान की सारी मिठाई खा जाएंगे
फिर देह में घुल चुकी शर्करा के पार जा कर
भगवान से आश्वासन लेंगे
कि
अगली बार
लड़की बनाना
जिसके पिता और पति दोनों की
अपनी मिठाई की दुकान हो।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।