Pratidin Ek Kavita

बन्द कमरे में | प्रभा खेतान

बन्द कमरे में
मेरी सब चीज़ें अपना परिचय खोने लगती हैं
दीवारों के रंग धूमिल
नीले पर्दे फीके
छत पर घूमता पंखा
गतिहीन।
तब मैं निकल पड़ती हूँ—बाहर,
फुटपाथ पर मूँगफली बेचनेवाला
परिचय की मुस्कान देता है
और सामने पानवाले की दुकान पर
घरवाली का हाल पूछना
कहीं अधिक अपना लगता है।
चौराहों पर
भीड़ के साथ रास्ता पार करना
मुझे अकेला नहीं करता।
बहुत से लोग हैं
इस महानगर में, जो मेरी ही तरह
अपने को बाँटते हैं
रेस्तराँ और दुकानों में
सिनेमाघर की लम्बी क़तारों में
या कभी
पार्कों में पड़ी खाली बेंचों पर
ऊबकर
या फिर बन्दरों का नाच देख
लौट जाते हैं—सब मेरी ही तरह
बन्द कमरों के
अपने अकेले निर्वासन में…

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।