Pratidin Ek Kavita

अबकी अगर लौटा तो | कुँवर नारायण

अबकी अगर लौटा तो 
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछे नहीं कमर में बाँधे लोहे की पूँछें नहीं 
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूँगा उन्हें 
भूखी शेर-आँखों से
अबकी अगर लौटा तो 
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते 
सड़कों पर चलते 
बसों पर चढ़ते 
ट्रेनें पकड़ते
जगह-बेजगह कुचला पड़ा 
पिद्दी-सा जानवर नहीं
अगर बचा रहा तो 
कृतज्ञतर लौटूंगा
अबकी अगर लौटा तो 
हताहत नहीं 
सबके हिताहित को सोचता 
पूर्णतर लौटूंगा।

बृहत्तर - और बड़ा

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।