Pratidin Ek Kavita

बसंत आया | केदारनाथ अग्रवाल

बसंत आया : 
पलास के बूढ़े वृक्षों ने 
टेसू की लाल मौर सिर पर धर ली! 
विकराल वनखंडी 
लजवंती दुलहिन बन गई, 
फूलों के आभूषण पहन आकर्षक बन गई। 
अनंग के 
धनु-गुण के भौरे गुनगुनाने लगे, 
समीर की तितिलियों के पंख गुदगुदाने लगे। 
आम के अंग 
बौरों की सुगंध से महक उठे, 
मंगल-गान के सब गायक पखेरू चहक उठे। 

विकराल : भयंकर, भयानक
वनखंडी: वन का एक छोटा भाग या हिस्सा
समीर:  मंद हवा, हल्की हवा

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।