Pratidin Ek Kavita

नदियाँ - केदारनाथ सिंह

वे हमें जानती हैं
जैसे जानती हैं वे अपनी मछलियों की बेचैनी
अपने तटों का तापमान
जो कि हमीं हैं

बस हमीं भूल गए हैं
हमारे घर कभी उनका भी
आना-जाना था

उनकी नसों में बहता है
पहाड़ों का खून
जिसमे थोड़ा सा खून
हमारा भी शामिल है
और गरम-गरम दूध
टपकता हुआ भूरे दरख्तों की छाल से

पता लगा लो
दरख्तों की छाल
और हमारी त्वचा का गोत्र
एक ही है

परछाइयां भी असल में
नदियाँ ही हैं
हमीं से फूटकर
हमारी बगल में चुपचाप बहती हुई नदियाँ
हर आदमी अपनी परछाई में
नहाता है
और लगता है
नदी में नहा रहा है

जो लगता है वह भी
उतना ही सच है
जितना कोई भी नदी

पुल -
पृथ्वी  के सारे के सारे पुल
एक गहरा षड्यंत्र हैं नदियों के खिलाफ
और नदियाँ उन्हें इस तरह बर्दाश्त करती हैं
जैसे क़ैदी ज़ंजीरों को
हालांकि नदियाँ इसीलिए नदियाँ है
कि वे जब भी चाहती हैं
उलट-पुलट आर देती हैं सारा कैलेण्डर
और दिशाओं के नाम

हमारे देश में नदियाँ
जब कुछ नहीं करतीं
तब वे शवों का इंतजार करती हैं

अँधेरे को चीरते हुए
आते हैं शव
वे आते हैं अपनी चुप्पियों की चोट से
जीने की धार को तीव्रतर करते हुए

नदियाँ उन्हें देखती हैं
और जैसे चली जाती हैं कहीं अपने ही अन्दर
किन्हीं जलमग्न शहरों की
गंध की तलाश में

नदियाँ जो कि असल में
शहरों का आरम्भ हैं
और शहर जो कि असल में
नदियों का अंत

मुझे याद नहीं
मैंने भूगोल की किस किताब में पढ़ा था
अंत और आरम्भ
अपने विरोध की सारी ऊष्मा के साथ
जिस जगह मिलते हैं
कहीं वहीं से निकलती हैं
सारी की सारी नदियाँ.

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।