कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
वे कैसे दिन थे | कीर्ति चौधरी
वे कैसे दिन थे
जब चीज़ें भागती थीं
और हम स्थिर थे
जैसे ट्रेन के एक डिब्बे में बंद झाँकते हुए
ओझल होते थे दृश्य
पल के पल में—
...कौन थी यह तार पर बैठी हुई
बुलबुल, गौरय्या या नीलकंठ?
आसमान को छूता हुआ
सवन का जोड़ा था?
दूरी पर झिलमिल-झिलमिल करती
नदिया थी?
या रेती का भ्रम?
कभी कम कभी ज़्यादा
प्रश्न ही प्रश्न उठते थे
हम विमूढ़ ठगे-से
सुलझाते ही रहते
और चीज़ें हो जाती थीं ओझल
वे कैसे दिन थे
जो रहे नहीं।
सीख ली हमने चाल समय की
भागने लगे सरपट
बदल गए सारे दृश्य
शाखों पर दुबकी भूरी चिड़ियों ने
कुतूहल से देखा हमें
हवा ने बढ़ाई बाँह
रसभीनी गंधमयी
लेकिन हम रुके नहीं
हमने सुनी ही नहीं
झरनों की कलकल
ताड़ पत्रों की बाँसुरी
पोखर में खिले रहे दल के दल कमल
और मुरझाए-से हम
आगे और आगे
भागते ही रहे
छोड़ते चले ही गए
जो कुछ पा सकते थे
हाथ रही केवल
यही अंतहीन दौड़
और छूटते दिनों के संग
पीछे सब छूट गया।