कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
सूई | रामदरश मिश्रा
अभी-अभी लौटी हूँ अपनी जगह पर
परिवार के एक पाँव में चुभा हुआ काँटा निकालकर
फिर खोंस दी गयी हूँ
धागे की रील में
जहाँ पड़ी रहूंगी चुपचाप
परिवार की हलचलों में अस्तित्वहीन-सी अदृश्य
एकाएक याद आएगी नव गृहिणी को मेरी
जब ऑफिस जाता उसका पति झल्लाएगा-
अरे, कमीज़ का बटन टूटा हुआ है"
गृहिणी हँसती हुई आएगी रसोईघर से
और मुझे लेकर बटन टाँकने लगेगी
पति सिसकारी भर उठेगा
"क्यों क्या हुआ, चुभ गयी निगोड़ी?" गृहिणी पूछेगी।
"हाँ चुभ गयी लेकिन सूई नहीं।"
दोनों की मुस्कानों के साथ ओठ भी पास आने लगेंगे
और मैं मुस्कराऊँगी अपने सेतु बन जाने पर
मैं खुद नंगी पड़ी होती हूँ
लेकिन मुझे कितनी तृप्ति मिलती है
कि मैं दुनिया का नंगापन ढांपती रहती हूँ
शिशुओं के लिए झबला बन जाती हूँ
और बच्चों, बड़ों के लिए
कुर्ता, कमीज़, टोपी और न जाने क्या-क्या
कपड़ों के छोटे-बड़े टुकड़ों को जोड़ती हूँ
और रचना करती रहती हूँ आकारों की
आकारों से छवियों की
छवियों से उत्सवों की
कितना सुख मिलता है
जब फटी हुई गरीब साड़ियों और धोतियों को
बार-बार सीती हूँ
और भरसक नंगा होने से बचाती हूँ देह की लाज को
जब फटन सीने के लायक नहीं रह जाती
तो चुपचाप रोती हूँ अपनी असमर्थता पर
मैं जाड़ों में बिछ जाती हूँ
काँपते शरीरों के ऊपर-नीचे गुदड़ी बनकर
और उनकी ऊष्मा में अपनी ऊष्मा मिलाती रहती हूँ ।