कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
18 नम्बर बेंच पर। दूधनाथ सिंह
18 नम्बर बेंच पर कोई निशान नहीं
चारों ओर घासफूस –- जंगली हरियाली
कीड़े-मकोड़े मच्छर अँधेरा
वर्षा से धुली हरी-चिकनी काई की लसलस
चींटियों के भुरेभुरे बिल –- सन्नाटा
बैठा सन्नाटा । क्षण वह धुल-पुँछ बराबर
कौन यहाँ आया बदलती प्रकृति के अलावा
प्रशासनिक भवन से दूर कुलसचिव के सुरक्षा-गॉर्ड
की नज़रों से बाहर ऋत्विक घटक की डोलती
दुबली छाया से उतर कौन यहाँ आया
एकान्त की मृत्यु बस रोज़ रात -– व्यर्थ
वृक्षों की छिदरी छाँह, झूमती हवा की चीत्कार संग
मैं फिरता वहाँ
सब कुछ गुज़रता है चुपचाप
आज रात नहीं कोई वहाँ
बात नहीं कोई
झँपती आँख नहीं कोई ।