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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
बीज पाखी | हेमंत देवलेकर
यह कितना रोमांचक दृश्य है:
किसी एकवचन को बहुवचन में देखना
पेड़ पैराशुट पहनकर उत्तर रहा है।
वह सिर्फ़ उतर नहीं रहा
बिखर भी रहा है।
कितनी गहरी व्यंजना : पेड़ को हवा बनते देखने में
सफ़ेद रोओं के ये गुच्छे
मिट्टी के बुलबुले है
पत्थर हों या पेड़ मन सबके उड़ते हैं
हर पेड़ कहीं दूर
फिर अपना पेड़ बसाना चाहता है
और यह सिर्फ़ पेड़ की आकांक्षा नहीं
आब-ओ-दाने की तलाश में भटकता हर कोई
उड़ता हुआ बीज है।