कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
अपनी देवनागरी लिपि | केदारनाथ सिंह
यह जो सीधी-सी, सरल-सी
अपनी लिपि है देवनागरी
इतनी सरल है
कि भूल गई है अपना सारा अतीत
पर मेरा ख़याल है
'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले
नहीं आया था दुनिया में
'च' पैदा हुआ होगा
किसी शिशु के गाल पर
माँ के चुम्बन से!
'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं
कि फूट पड़े होंगे
किसी पत्थर को फोड़कर
'न' एक स्थायी प्रतिरोध है
हर अन्याय का
'म' एक पशु के रँभाने की आवाज़
जो किसी कंठ से छनकर
बन गयी होगी “माँ"!
स' के संगीत में
संभव है एक हल्की-सी सिसकी
सुनाई पड़े तुम्हें।
हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे
किसी लिखते हुए हाथ की
तकलीफ़ दबी हो
कभी देखना ध्यान से
किसी अक्षर में झाँककर
वहाँ रोशनाई के तल में
एक ज़रा-सी रोशनी
तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी।
यह मेरे लोगों का उल्लास है
जो ढल गया है मात्राओं में।
अनुस्वार में उतर आया है
कोई कंठावरोध!
पर कौन कह सकता है
इसके अंतिम वर्ण 'ह' में
कितनी हँसी है
कितना हाहाकार !