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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
दुख | मदन कश्यप
दुख इतना था उसके जीवन में कि प्यार में भी दुख ही था
उसकी आँखों में झाँका
दुख तालाब के जल की तरह ठहरा हुआ था
उसे बाँहों में कसा
पीठ पर दुख दागने के निशान की तरह दिखा
उसे चूमना चाहा
दुख होंठों पर पपड़ियों की तरह जमा था
उसे निर्वस्त्र करना चाहा
उसने दुख पहन रखा था जिसे उतारना संभव नहीं था।