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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
पास | अशोक वाजपेयी
पत्थर के पास था वृक्ष
वृक्ष के पास थी झाड़ी
झाड़ी के पास थी घास
घास के पास थी धरती
धरती के पास थी ऊँची चट्टान
चट्टान के पास था क़िले का बुर्ज
बुर्ज के पास था आकाश
आकाश के पास था शुन्य
शुन्य के पास था अनहद नाद
नाद के पास था शब्द
शब्द के पास था पत्थर
सब एक-दूसरे के पास थे
पर किसी के पास समय नहीं था।