कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
अँधेरा भी एक दर्पण है | अनुपम सिंह
अँधेरा भी एक दर्पण है
साफ़ दिखाई देती हैं सब छवियाँ
यहाँ काँटा तो गड़ता ही है
फूल भी भय देता है
कभी नहीं भूली अँधेरे में गही बाँह
पृथ्वी सबसे उच्चतम बिन्दु पर काँपी थी
जल काँपा था काँपे थे सभी तत्त्व
वह भी एक महाप्रलय था
आँधेरे से सन्धि चाहते दिशागामी पाँव
टकराते हैं आकाश तक खिंचे तम के पर्दे से
जीवन-मृत्यु और भय का इतना रोमांच!
भावों की पराकाष्ठा है यह अँधेरा
अँधेरे की घाटी में सीढ़ीदार उतरन नहीं होती
सीधे ही उतरना पड़ता है मुँह के बल
अँधेरे के आँसू वही देखता है
जिसके होती है अँधेरे की आँख।
उजाले के भ्रम से कहीं अच्छा है
इस दर्पण को निहारते
देखूँ काँपती पृथ्वी को
तत्वों के टकराव को
अँधेरे की देह धर उतरूँ उस बिन्दु पर
जहाँ सृजित होता है अँधेरा
तो उजाले में मेरी लाश आएगी
यह कविता के लिए जीवन होगा।