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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
दिन भर | रामदरश मिश्रा
आज दिन भर कुछ नहीं किया
सुबह की झील में
एक कंकड़ी मारकर बैठ गया तट पर
और उसमें उठने वाली लहरों को देखता रहा
शाम को लोग घर लौटे तो
न जाने क्या-क्या सामान थे उनके पास
मेरे पास कुछ नहीं था
केवल एक अनुभव था
कंकड़ी और लहरों के सम्बन्ध से बना हुआ।