कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
पिताओं के बारे में कुछ छूटी हुई पंक्तियाँ | कुमार अम्बुज
एक दिन लगभग सभी पुरुष पिता हो जाते हैं
जो नहीं होते वे भी उम्रदराज़ होकर बच्चों से, युवकों से
इस तरह पेश आने लगते हैं जैसे वे ही उनके पिता हों
पिताओं की सख़्त आवाज़ घर से बाहर कई जगहों पर
कई लोगों के सामने गिड़गिड़ाती पाई जाती है
वे ज़माने भर से क्रोध में एक अधूरा वाक्य बुदबुदाते हैं—
'यदि बाल-बच्चे न होते तो मैं तुम्हारी...'
कभी-कभी वे पिता होने से थक जाते हैं और चुपचाप लेटे रहते हैं
पिताओं का प्रेम तुलाओं पर माँओं के प्रेम से कम पड़ जाता है
और अदृश्य बना रहता है या फिर टिमटिमाता है अँधेरी रातों में
धीरे-धीरे उन्हें जीवन के सारे मुहावरे याद हो जाते हैं
और विपत्तियों को भी वे कथाओं की तरह सुनाते हैं
एक रात वे सूचना देते हैं : 'बीमा करा लिया है'
वे बच्चों को प्यार करना चाहते हैं
लेकिन अनायास ही वे बच्चों को डाँटने लगते हैं
कभी-कभी वे नाकुछ बात पर ठहाका लगाते हैं
हम देखते हैं उनके दाँत पीले पड़ने लगे हैं
धीरे-धीरे झुर्रियाँ उन्हें घेर लेती हैं
वे अपनी ही खंदकों, अपने ही बीहड़ों में छिपना चाहते हैं
यकायक वे किसी कंदरा में, किसी तंद्रा में चले जाते हैं
और किसी को भी पहचानने से इनकार कर देते हैं।