Pratidin Ek Kavita

साम्य | नरेश सक्सेना 

समुद्र के निर्जन विस्तार को देखकर
वैसा ही डर लगता है
जैसा रेगिस्तान को देखकर
समुद्र और रेगिस्तान में अजीब साम्य है
दोनों ही होते हें विशाल
लहरों से भरे हुए
और दोनों ही
भटके हुए आदमी को मारते हैं
प्यासा।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

साम्य | नरेश सक्सेना

समुद्र के निर्जन विस्तार को देखकर
बैसा ही डर लगता है
जैसा रेगिस्तान को देखकर
समुद्र और रेगिस्तान में अजीब साम्य है
दोनों ही होते हें विशाल
लहरों से भरे हुए
और दोनों ही
भटके हुए आदमी को मारते हैं
प्यासा।