कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
सूरज | आकांक्षा पांडे
तुम,
हां तुम्हीं
तुमसे कुछ बताना चाहती हूँ।
माना अनजान हूं
दिखती नादान हूं
कुछ ज्यादा कहने को नहीं है
कोई बड़ा फरमान नही है
बस इतना दोहराना है
जग में सबने जाना है
पीड़ा घटे बताने से
रात कटे बहाने से
लेकिन की थोड़ी कंजूसी
करके इतनी कानाफूसी
बात का बतंगड़ बनाया
ऐसा मायाजाल पिरोया
कि अब डरते हो तुम
कहने से अपने मन की
देने दुहाई तन्हा दिल की
करना साझा अपना
बिसरा कोई दुख पुराना
किसी अपने का दूर जाना
सब रखते हो तकिए के नीचे
गठरी बांध कही कोने में
चूक से भी खोल न दे
जुबां कही बोल न दे
बिखर न जाए दुख बथेरे
आंसू शायद फिर न ठहरे
माना है ये खौफ बड़ा
चौखट छांके पिशाच खड़ा
पर एक कदम की दूरी है
सांझ के बाद ही नूरी है
थाम ज़रा दिल तुम अपना
धीरे से आगे बढ़ना
हाथ मिलेंगे बहुतेरे
तुम किसी एक से
रिश्ता गढ़ना
थोड़ा तुम उसकी सुनना
कुछ थोड़ी अपनी कहना
हौले हौले बातों से
खुल जाएंगी गांठे मन की
हो जाएगा दिल हल्का
जब धार बहेगी लफ्जों की
हल्के हल्के कदमों से फिर
जाना तुम किवाड़ के पास
तुलु ए सेहर या चांदनी रात
दोनों देंगे तुम्हे कुछ आस
पिशाच थोड़ा घबराएगा
भड़केगा, गुर्राएगा
फिर भी तुम धीरज रखना
हाथ पकड़ आगे बढ़ना
मुंह छोटी पर बात बड़ी
बस इतना ही कहना है
दीर्घकाल के शिशिर के बाद
फागुन में सब खिलता है
छः महीने के बाद ही सही
ध्रुव पर भी सूरज उगता है