Pratidin Ek Kavita

नदी कभी नहीं सूखती | दामोदर खड़से 

पौ फटने से पहले
सारी बस्ती ही
गागर भर-भरकर
अपनी प्यास
बुझाती रही
फिर भी
नदी कुँवारी ही रही
क्योंकि,
नदी कभी नहीं सूखती 
नदी, इस बस्ती की पूर्वज है!

पीढ़ियों के पुरखे
इसी नदी में
डुबकियाँ लगाकर
अपना यौवन
जगाते रहे
सूर्योदय से पहले
सतह पर उभरे कोहरे में
अंजुरी भर अनिष्ट अँधेरा
नदी में बहाते रहे
हर शाम
बस्ती की स्त्रियाँ
अपनी मन्नतों के दीये
इसी नदी में सिराती रहीं
नदी बड़ी रोमांचित, 
बड़ी गर्वीली हो
अपने भीतर
सब कुछ समेट लेती
हरियाली भरे
उसके किनारे
उगाते रहे निरंतर वरदान 
कभी-कभी असमय छितराए 
प्राणों के,
फूलों के स्पर्श
नदी को भावुक कर जाते 
पर नदी बहती रही
उसकी आत्मा हमेशा ही 
धरती रही
बस्ती के हर छोर को
नदी का प्यार मिलता रहा 
सुख-दुख की गवाह रही नदी...

कुछ दिनों से बस्ती में
आस्थाओं और विश्वासों पर
बहस जारी है
कभी-कभी नदी
चारों ओर से 
अकेली हो जाती है
नदी को हर शाम
इंतजार रहता दीपों का
कोई कहता
नदी सूख रही है
भीतर से
सुनकर यह
पिघलता है हिमालय
और नदी में
बाढ़ आ जाती है फिर
उसकी बूँदें नर्तन
और उसका संगीत
बहाव पा जाता है
किनारे गीत गाते हैं
गागर भर-भर ले जाती हैं बस्तियाँ 
नदी कभी नहीं सूखती!

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

नदी कभी नहीं सूखती - दामोदर खड़से

पौ फटने से पहले
सारी बस्ती ही
गागर भर-भरकर
अपनी प्यास
बुझाती रही
फिर भी
नदी कुँवारी ही रही
क्योंकि,
नदी कभी नहीं सूखती
नदी, इस बस्ती की पूर्वज है!

पीढ़ियों के पुरखे
इसी नदी में
डुबकियाँ लगाकर
अपना यौवन
जगाते रहे
सूर्योदय से पहले
सतह पर उभरे कोहरे में
अंजुरी भर अनिष्ट अँधेरा
नदी में बहाते रहे
हर शाम
बस्ती की स्त्रियाँ
अपनी मन्नतों के दीये
इसी नदी में सिराती रहीं
नदी बड़ी रोमांचित,
बड़ी गर्वीली हो
अपने भीतर
सब कुछ समेट लेती
हरियाली भरे
उसके किनारे
उगाते रहे निरंतर वरदान
कभी-कभी असमय छितराए
प्राणों के,
फूलों के स्पर्श
नदी को भावुक कर जाते
पर नदी बहती रही
उसकी आत्मा हमेशा ही
धरती रही
बस्ती के हर छोर को
नदी का प्यार मिलता रहा
सुख-दुख की गवाह रही नदी...

कुछ दिनों से बस्ती में
आस्थाओं और विश्वासों पर
बहस जारी है
कभी-कभी नदी
चारों ओर से
अकेली हो जाती है
नदी को हर शाम
इंतजार रहता दीपों का
कोई कहता
नदी सूख रही है
भीतर से
सुनकर यह
पिघलता है हिमालय
और नदी में
बाढ़ आ जाती है फिर
उसकी बूँदें नर्तन
और उसका संगीत
बहाव पा जाता है
किनारे गीत गाते हैं
गागर भर-भर ले जाती हैं बस्तियाँ
नदी कभी नहीं सूखती!