कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
दाँत | नीलेश रघुवंशी
गिरने वाले हैं सारे दूधिया दाँत एक-एक कर
टूटकर ये दाँत जायेंगे कहाँ ?
छत पर जाकर फेंकूँ या गड़ा दूँ ज़मीन में
छत से फैंकूँगा चुरायेगा आसमान
बनायेगा तारे
बनकर तारे चिढ़ायेंगे दूर से
डालूँ चूहे के बिल में
आयेंगे लौटकर सुंदर और चमकीले
चिढ़ायेंगे बच्चे 'चूहे से दाँत’ कहकर
खपरैल पर गये तो आयेंगे कवेल की तरह
या उड़ाकर ले जायेगी चिड़िया
गड़ाऊँगा ज़मीन में बन जायेंगे पेड़
खायेगा मिठू मुझसे पहले फल रसीले
मुट्टी में दबाये दाँत दौड़ता है बच्चा
पीछे-पीडे दौड़ती है माँ।