कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
शीतलहरी में एक बूढ़े आदमी की प्रार्थना | केदारनाथ सिंह
ईश्वर
इस भयानक ठंड में
जहाँ पेड़ के पत्ते तक ठिठुर रहे हैं
मुझे कहाँ मिलेगा वह कोयला
जिस पर इन्सानियत का खून गरमाया जाता है
एक ज़िन्दा
लाल
दहकता हुआ कोयला
मेरी अँगीठी के लिए बेहद ज़रूरी
और हमदर्द कोयला
मुझे कहाँ मिलेगा इस ठंड से अकड़े हुए शहर में
जहाँ वह हमेशा छिपाकर रखा जाता है
घर के पिछवाड़े
या ग़ुसलख़ाने की बग़ल में
हथेलियों की रगड़ में दबा रहता है जो
जो इरादों में होता है
जो यकायक सुलग उठता है याददाश्त की हदों पर
पस्ती के दिनों में
मुझे कहाँ मिलेगा वह कोयला
मेरे ईश्वर!
मुझे क्या करना चाहिए इस दिन का
जिसमें कोयला नहीं है
मुझे क्या करना चाहिए इस ठंड का
जो बराबर बढ़ती जा रही है
क्या मैं भी इन्तज़ार करूँ
जैसे सब कर रहे हैं
क्या मैं उदूँ और अपने-आपको बदल लूँ
एक कोयला झोंकनेवाले बेलचे में
क्या मैं बाज़ार जाऊँ
और अपनी आत्मा के लिए ख़रीद लूँ
एक अच्छा-सा कनटोप?
मेरे ईश्वर!
क्या मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते
कि इस ठंड से अकड़े हुए शहर को बदल दो
एक जलती हुई बोरसी में!
बोरसी = अंगीठी ; मिट्टी का बरतन जिसमें आग रखकर जलाते हैं