कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
क़िले में बच्चे | नरेश सक्सेना
क़िले के फाटक खुले पड़े हैं
और पहरेदार गायब
ड्योढ़ी में चमगादड़ें
दीवाने ख़ास में जाले और
हरम बेपर्दा हैं
सुल्तान दौड़ो!
आज किले में भर गए हैं बच्चे
उन्होंने तुम्हारी बुर्जियों, मेहराबों, खंभों और
कंगूरों पर लिख दिए हैं अपने नाम
कक्षाएँ और स्कूल के पते
अब वे पूछ रहे हैं सवाल
कि सुल्तान के घर का इतना बड़ा दरवाज़ा
उसकी इतनी ऊँची दीवारें
उनके चारों तरफ़ इतनी सारी खाइयाँ
इतने सारे तहखाने छुपने के लिए
और भागने के लिए इतनी लंबी सुरंगें
और चोर रास्ते
आख़िर...
सुल्तान इतना डरपोक क्यों था!