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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था | विनोद कुमार शुक्ल
अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था
और हम मिल गए
दो बार ऎसा हुआ
पहले पन्द्रह बरस बाद मिले
फिर उसके आठ बरस बाद
जीवन इसी तरह का
जैसे स्थगित मृत्यु है
जो उसी तरह बिछुड़ा देती है,
जैसे मृत्यु
पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ
अबकी पड़ोस में वह रहने आई
उसे तब न मेरा पता था
न मुझे उसका।
थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का
पड़ोस में साथ रहने को बचा था
पहले हम एक ही घर में रहते थे।