कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
जड़ें | राजेंद्र धोड़पकर
हवा में बिल्कुल हवा में उगा पेड़
बिल्कुल हवा में, ज़मीन में नहीं
बादलों पर झरते हैं उसके पत्ते
लेकिन जड़ों को चाहिए एक आधार और वे
किसी दोपहर सड़क पर चलते एक आदमी के
शरीर में उतर जाती हैं
उसके साथ उसके घर जाती हैं जड़ें
और फैलती हैं दीवारों में भी
आदमी झरता जाता है दीवारों के पलस्तर-सा
जब भी बारिश होती है
उसके स्वप्नों में पत्ते झरते हैं बादलों से
जब दोपहर में आदमी चला जाता है शहर में खपने
तब एक फल गिरता है आँगन में
सुनसान धूप में
और उसके सोते हुए बच्चे की आवाज़ खाने दौड़ती है उसे