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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
वे दिन और ये दिन | रामदरश मिश्र
तब वे दिन आते थे
उड़ते हुए
इत्र-भीगे अज्ञात प्रेम-पत्र की तरह
और महमहाते हुए निकल जाते थे
उनकी महमहाहट भी
मेरे लिए एक उपलब्धि थी।
अब ये दिन आते हैं सरकते हुए
सामने जमकर बैठ जाते हैं।
परीक्षा के प्रश्न-पत्र की तरह
आँखों को अपने में उलझाकर आह!
हटते ही नहीं
ये दिन
जिनका परिणाम पता नहीं कब निकलेगा।