कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
इतने बरस बीते, इतने बरस !
सन्तोष है तो बस इतना
कि मैंने ये बाल
धूप में तो सफेद नहीं किए !
इन खिचड़ी बालों का वास्ता,
देखा है संसार मैंने भी थोड़ा-सा !
दुनिया के हर कोने
क्या जाने क्या-क्या खिचड़ी पक रही है :
संसद में, निर्णायक मंडल में,
दूर वहाँ इतिहास के खंडहरों में !
'चाणक्य की खिचड़ी' से लेकर 'बीरबल की खिचड़ी' तक
सल्तनतें हैं और रणकौशल !
मुझे खिचड़ी-भाषा से कोई शिकायत नहीं !
खिचड़ी गरीब मेहनतकश का
सबसे सुस्वादु और पौष्टिक भोजन है,
पर मैं सुपली में फटककर
कुछ कंकड़ चुन लेना चाहती हूँ!
और तब धो-धोकर सीधा डबका लेना चाहती हूँ अपना सच
सादा ही
नमक-मिर्च मिलाए बिना !
डबकाना चाहती हूँ अपना सच
उस बड़े सच की हँड़िया में जो साझा है!
और चाहे जो हो- साझी सच्चाई
काठ की हंड़िया नहीं है
कि दुबारा न चढ़े आँच पर !
रोज़ वह करती है आग की सवारी,
रोज़ रगड़घस सहती है हमारी-तुम्हारी !
मुझे खिचड़ी-भाषा से कोई शिकायत नहीं।
छौंक के करछुल में जीरा बराबर
चटक रहे हैं मेरे सपने-
इसी में !