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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
आँगन | रामदरश मिश्रा
तने हुए दो पड़ोसी दरवाज़े
एक-दूसरे की आँखों में आँखें धँसाकर
गुर्राते रहे कुत्तों की तरह
फेंकते रहे आग और धुआँ भरे शब्दों का कोलाहल
खाते रहे कसमें एक -दूसरे को समझ लेने की
फिर रात को
एक-दूसरे से मुँह फेरकर सो गये
रात के सन्नाटे में
दोनों घरों की खिड़कियाँ खुलीं
प्यार से बोलीं-
"कैसी हो बहना?"
फिर देर तक दो आँगन आपस में बतियाते रहे
एक-दूसरे में आते-जाते रहे
और हँसते रहे दरवाजों की कसमों पर।