कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
जरखरीद देह - रूपम मिश्र
हम एक ही पटकथा के पात्र थे
एक ही कहानी कहते हुए हम दोनों अलग-अलग दृश्य में होते
जैसे एक दृश्य तुम देखते हुए कहते तुमसे कभी मिलने आऊँगा
तुम्हारे गाँव तो नदी के किनारे बैठेंगे जी भर बातें करेंगे
तुम बेहया के हल्के बैंगनी फूलों की अल्पना बनाना
उसी दृश्य में तुमसे आगे जाकर देखती हूँ
नदी का वही किनारा है बहेरी आम का वही पुराना पेड़ है।
जिसके तने को पकड़कर हम छुटपन में गोल-गोल घूमते थे।
उसी की एक लम्बी डाल पर दो लाशें झूल रही हैं ।
एक मेरी हैं दूसरी का बस माथा देखकर ही मैं
चीख पड़ती हूँ और दृश्य से भाग आती हूँ
तुम रूमानियत में दूसरा दृश्य देखते हो
किसी शाम जब आकाश के थाल में तारे बिखरे होंगे
संसार मीठी नींद में होगा तो चुपके से तुमसे मिलने आ जाऊँगा
मैं झट से बचपन में चली जाती हूँ जहाँ दादी भाई को गोद में लिये
रानी सारंगा और सदावृक्ष की कहानी सुना रही हैं
मैं सीधे कहानी के क्लाइमेक्स में पहुँचती हूँ
जहाँ रानी सारंगा से मिलने आए प्रेमी का गला खचाक से काट दिया जाता है
और छोटा भाई ताली पीटकर हँसने लगता है
दृश्य और भी था जिसमें मेरा चेहरा नहीं था देहों से भरा एक मकान था
मैं एक अछूत बर्तन की तरह घर के एक कोने में पड़ी थी
तुम और भी दृश्य बताते हो जिसमें समन्दर बादल और पहाड़ होते हैं
मैं कहती हूँ कहते रहो ये सुनना अच्छा लग रहा है
बस मेरे गाँव-जवार की तरफ न लौटना क्योंकि
ये आत्मा प्रेम की जरखरीद है और देह कुछ देहों की।