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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
यहाँ सब ठीक है | धीरज
शहर जाने वालों के पास
हमेशा नहीं होते होंगे
वापस लौटने के पैसे
ऐसे में वो ढूंढते होंगे कुछ, और उसी कुछ का सब कुछ
कि जैसे सब कुछ का चाय-पानी
सब कुछ का नून- तेल
सब कुछ का दाल-चावल
और ऐसे में,
और जब कोई नया आता होगा शहर
तो उससे पूछते होंगे बरसात
मेला, कजरी चैत
करते होंगे ढेरों फ़ोन पर बात
और दोहराते होंगे बस यह बात
कि यहाँ सब ठीक है
आशा करता हूँ, वहाँ भी।