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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
यह किसका घर है? | रामदरश मिश्रा
"यह किसका घर है?"
"हिन्दू का।"
"यह किसका घर है?"
"मुसलमान का।"
यह किसका घर है?"
"ईसाई का।”
शाम होने को आयी
सवेरे से ही भटक रहा हूँ
मकानों के इस हसीन जंगल में
कहाँ गया वह घर
जिसमें एक आदमी रहता था?
अब रात होने को है।
मैं कहाँ जाऊँगा?