Pratidin Ek Kavita

बहुरूपिया | मदन कश्यप 

जब वह पास आया
तो पाँव में प्लास्टिक की चप्पल देखकर 
एकदम से हँसी फूट पड़ी
फिर लगा
भला कैसे संभव है
महानगर की क्रूर सड़कों पर नंगे पाँव चलना 
चाहे वह बहुरूपिया ही क्यों न हो

वैसे उसने अपनी तरफ़ से कोशिश की थी
दुम इतनी ऊँची लगायी थी
कि वह सिर से काफ़ी ऊपर उठी दिख रही थी
बाँस की खपच्चियों पर पीले काग़ज़ साटकर बनी गदा
कमज़ोर भले हो 
चमकदार ख़ूब थी
सिर पर गत्ते की चमकती टोपी थी
चेहरे और हाथ-पाँव पर ख़ूब लाल रंग पोत रखा था 
लेकिन लाल लँगोटे की जगह धारीदार अंडरवियर 
और बदन में सफ़ेद बनियान
उसकी पोल खोल रही थी


उसने हनुमान का बाना धरा था
पर इतने भर से भला क्या हनुमान लगता 
वह भी इस 'टेक्नो मेक-अप' के युग में जहाँ फ़िल्मों और टीवी सीरियलों में 
तरह-तरह के हनुमान उछलकूद करते दिखते रहते हैं वह भी समझ रहा था अपनी दिकदारियों को
तभी तो चाल में हनुमान होने की ठसक नहीं थी।
बनने की विवशता
और नहीं बन पाने की असहायता के बीच फँसा हुआ एक उदास आदमी था वह 
जो जीने का और कोई दूसरा तरीक़ा नहीं जानता था
इस बहुरूपिया लोकतन्त्र में
किसी साधारण तमाशागर के लिए
बहुत कठिन है बहुरूपिया बनना और बने रहना 
जबकि निगमित हो रही है साम्प्रदायिकता प्रगतिशील कहला रहा है जातिवाद
समृद्धि का सूचकांक बन गयी हैं किसानों की आत्महत्याएँ 
और आदिवासियों के खून से सजायी जा रही है भूमण्डलीकरण की अल्पना
बस केवल बहुरूपिया है जो बहुरूपिया नहीं है!


What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

बहुरूपिया | मदन कश्यप

जब वह पास आया
तो पाँव में प्लास्टिक की चप्पल देखकर
एकदम से हँसी फूट पड़ी
फिर लगा
भला कैसे संभव है
महानगर की क्रूर सड़कों पर नंगे पाँव चलना
चाहे वह बहुरूपिया ही क्यों न हो

वैसे उसने अपनी तरफ़ से कोशिश की थी
दुम इतनी ऊँची लगायी थी
कि वह सिर से काफ़ी ऊपर उठी दिख रही थी
बाँस की खपच्चियों पर पीले काग़ज़ साटकर बनी गदा
कमज़ोर भले हो
चमकदार ख़ूब थी
सिर पर गत्ते की चमकती टोपी थी
चेहरे और हाथ-पाँव पर ख़ूब लाल रंग पोत रखा था
लेकिन लाल लँगोटे की जगह धारीदार अंडरवियर
और बदन में सफ़ेद बनियान
उसकी पोल खोल रही थी

उसने हनुमान का बाना धरा था
पर इतने भर से भला क्या हनुमान लगता
वह भी इस 'टेक्नो मेक-अप' के युग में जहाँ फ़िल्मों और टीवी सीरियलों में
तरह-तरह के हनुमान उछलकूद करते दिखते रहते हैं वह भी समझ रहा था अपनी दिकदारियों को
तभी तो चाल में हनुमान होने की ठसक नहीं थी।
बनने की विवशता
और नहीं बन पाने की असहायता के बीच फँसा हुआ एक उदास आदमी था वह
जो जीने का और कोई दूसरा तरीक़ा नहीं जानता था
इस बहुरूपिया लोकतन्त्र में
किसी साधारण तमाशागर के लिए
बहुत कठिन है बहुरूपिया बनना और बने रहना
जबकि निगमित हो रही है साम्प्रदायिकता प्रगतिशील कहला रहा है जातिवाद
समृद्धि का सूचकांक बन गयी हैं किसानों की आत्महत्याएँ
और आदिवासियों के खून से सजायी जा रही है भूमण्डलीकरण की अल्पना
बस केवल बहुरूपिया है जो बहुरूपिया नहीं है!