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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
बाज़ार | अनामिका
सुख ढूँढ़ा,
गैया के पीछे बछड़े जैसा
दुःख चला आया!
जीवन के साथ बँधी
मृत्यु चली आई!
दिन के पीछे डोलती आई
रात बाल खोले हुई।
प्रेम के पीछे चली आई
दाँत पीसती कछमछाहट!
‘बाई वन गेट वन फ़्री!'
लेकिन अतिरेकों के बीच कहीं
कुछ तो था
जो जस का तस रह गया
लिए लुकाठी हाथ-
डफ़ली बजाता हुआ
और मगन गाता हुआ-
‘मन लागो मेरो यार फ़क़ीरी में!