कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
हम लौट जाएंगे | शशिप्रभा तिवारी
कितने रात जागकर
हमने तुमने मिलकर
सपना बुना था
कभी इस नीम की डाल पर बैठ
कभी उस मंदिर कंगूरे पर बैठ
कभी तालाब के किनारे बैठ
कभी कुएं के जगत पर बैठ
बहुत सी कहानियां
मैं सुनाती थी तुम्हें
ताकि उन कहानियों में से
कुछ अलग कहानी
तुम लिख सको
और अपनी तकदीर
बदल डालो
कितने रात जागकर
हमने तुमने मिलकर
सपना बुना था
साथ तुम्हारे हम भी
दुनिया के रंग देख पाते!
लेकिन, परंतु,
और बहुत से सवाल
व्यवस्था-व्यवसाय!
यूं छूट गईं,
उन दिवारों पर
नाहक, भाग्य बदलने की
कोशिश में तुम
रोज पिसती रहीं होंगी,
अपना दुख छिपातीं होंगी
कितने रात जागकर
हमने तुमने मिलकर
सपना बुना था
बंद दरवाज़े के
पीछे का सच
कौन जान सकता है?
हम तो संसार में
खाली हाथ आए थे
और खाली हाथ ही लौट
जाएंगे।
उस नीम की डाल को न देखेंगे!
न उस बसेरे को
न उस बस्ती को
उजड़े हुए, लोग
बसाए घर के
उजड़ने का दर्द भला
क्या महसूस करेंगे?
कितने रात जागकर
हमने तुमने मिलकर
सपना बुना था।