Nayidhara Ekal

नई धारा एकल के पहले एपिसोड में देखिए मशहूर अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता द्वारा मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के अंश का पाठ।
नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें।
दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ से मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ तक और धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ से भीष्म साहनी के ‘हानूश’ तक - आधुनिक हिन्दी साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण कृतियाँ, आपके पसंदीदा अदाकारों की ज़बानी।

नई धारा वेबसाइट:
https://nayidhara.in/

What is Nayidhara Ekal?

साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।

नमस्ते मैं हूं अमिताभ श्रीवास्तव। स्वागत है आप सबका हमारे इस ख़ास कार्यक्रम में जिसका नाम है नई धारा एकल। यहां हम हर हफ्ते मिलेंगे किसी जानेमाने अभिनेता से और सुनेंगे उनसे उनके किसी पसंदीदा साहित्यिक कृति का एक अंश है। हमारे आज के कलाकार हैं श्री राजेंद्र गुप्ता।
राजेंद्र गुप्ता जी ने सन् 1972 में एनएसडी से ट्रेनिंग प्राप्त की। उसके बाद वो कई सालों तक थिएटर से जुड़े रहे, बतौर एक अभिनेता एक निर्देशक और एक प्रशिक्षक। उन्होंने कई सारी बेहतरीन प्रस्तुतियों में अभिनय किया। मुख्य भूमिका निभाई जिनमें से कुछ प्रमुख हैं, ‘सूर्य के अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक ‘,’ बहुत बड़ा सवाल’, ‘महाभोज’, ‘खूब मिलाई जोड़ी’ वगैरा। आज राजीव जी हम लोगों के लिए भारतीय रंगमंच की एक महान कृति ‘आषाढ़ का एक दिन’ में से कालिदास का एक संवाद पढ़ेंगे।

‘आषाढ़ का एक दिन’ एक तीन अंकों का नाटक है और महाकवि कालिदास और उनकी प्रेमिका और प्रेरणा मल्लिका की कहानी है। पहले अंक में हम देखते हैं कि कैसे उज्जैनी से राजा विक्रमादित्य का दूत आया हुआ है। वह कालिदास को उज्जैनी ले जाना चाहता है। कालिदास जाना नहीं चाहते, लेकिन मल्लिका के ही बहुत कहने पर, समझाने पर वो जाते हैं, जहां उन्हें राजकवि का पद मिलता है, पुरस्कार मिलता है और फिर वो वहीं के होकर रह जाते हैं। नाटक का दूसरा अंक है। मालूम चलता है कि अब जो है कालिदास का विवाह राजा विक्रमादित्य की बेटी से हो चुका है और उन्हें कश्मीर का शासक बना दिया गया है। कालिदास की पत्नी गांव में आती है। कालिदास भी आते हैं, लेकिन वो मल्लिका से नहीं मिलते।
मल्लिका उनका इंतजार करती रहती है और फिर आता है, नाटक का तीसरा अंक कई सालों बाद। अब तक मल्लिका के जीवन में बहुत परिवर्तन आ गया है और वो एक बच्चे की मां भी हो गई है और तब एक रात कालिदास उससे मिलने आते हैं और उसके बाद जो वो कहते हैं, मल्लिका से वो हम सुनते हैं राजन गुप्ता जी से।

मैंने बहुत बार अपने संबंध में सोचा मल्लिका और मैं हर बार इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि अंबिका ठीक कहते थी । मैं यहाँ से क्यों नहीं जाना चाहता था। एक कारण यह भी था कि मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं था। मैं नहीं जानता था कि अभाव और भर्त्सना का जीवन व्यतीत करने के बाद प्रतिष्ठा और सम्मान के वातावरण में जाकर मैं कैसा अनुभव करूंगा। मन में कहीं ये आशंका भी थी के ये वातावरण मुझे छा लेगा, मेरे जीवन की दिशा बदल देगा और ये आशंका निराधार नहीं थी ।
तुम्हे बहुत आश्चर्य हुआ था ना के मैं कश्मीर का शासन संभालने जा रहा हूं । तुम्हे ये बहुत अस्वाभाविक लगा होगा। परंतु मुझे इसमें कुछ भी अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता।
अभावपूर्ण जीवन की ये एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। संभवता उसमें कहीं उन सब से प्रतिशोध लेने की भावना भी थी जिन्होंने जब तब मेरी भर्त्सना की थी, मेरा उपहास उड़ाया था । परंतु मैं नहीं जानता था कि मैं सुखी नहीं हो सकता। मैं बार बार अपने को विश्वास दिलाना चाहता था कि कमी उस वातावरण में नहीं, कमी मुझमें है। मैं अपने आप को बदल लूँ तो सुखी हो सकता हूँ।
परंतु ऐसा नहीं हुआ । ना तो मैं बदल सका और ना ही मैं सुखी हो सका। अधिकार मिला, सम्मान बहुत मिला, जो कुछ मैंने लिखा उसकी प्रतिलिपियां देश भर में पहुंच गई । परंतु मैं सुखी नहीं हुआ। किसी और के लिए वो वातावरण और जीवन स्वाभाविक हो सकता था। मेरे लिए नहीं। एक राज्य अधिकारी का कार्यक्षेत्र मेरे कार्यक्षेत्र से बिल्कुल भिन्न था। मुझे बार बार अनुभव होता था कि मैंने प्रभुता और सुविधा के मोह में पड़कर उस क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश किया है और जिस जिस विशाल में मुझे रहना चाहिए था, उससे मैं दूर हट गया हूँ।
जब भी मेरी आँखें दूर तक फैली क्षितिज रेखा पर पड़ती, तभी मुझे ये अनुभूति सालती के उस विशाल से दूर हट गया हूँ।
मैं अपने आप को आश्वासन देता रहा कि आज नहीं तो कल मैं परिस्थितियों को वश में कर लूंगा और समान रूप से दोनों क्षेत्रों में अपने आपको बांट लूंगा, परंतु बेहतर स्वयं ही परिस्थितियों के हाथों बनता और चालित होता रहा।
जिस कल की मुझे प्रतीक्षा थी वो कल कभी नहीं आया और मैं धीरे धीरे खंडित, और खंडित होता गया। अब मल्लिका एक दिन मैंने पाया कि मैं सर्वथा टूट गया हूँ। मैं वो व्यक्ति ही नहीं रह गया हूं, जिसका उस विशाल से कुछ भी सम्बन्ध था। कश्मीर जाते हुए, मैं यहाँ से होकर नहीं जाना चाहता था। मुझे लगता था कि ये प्रदेश, यहाँ की पर्वत श्रृंखलाएं, यहाँ की उपत्यकाएँ में मेरे सामने मुंह प्रश्न का रूप ले लेगी, परंतु लोभ का संवरण नहीं हुआ मुझसे।
लेकिन इस बार भी मैं यहाँ आकर सुखी नहीं हुआ। मुझे वितृष्णा हुई अपने आप से। उन लोगों से भी वितृष्णा हुई जिन्होंने मेरे बारे में, मेरे आने के दिन को एक उत्सव की तरह मनाया। तब पहली बार मेरा मन मुक्ति के लिए व्याकुल हुआ। पर मैं मुक्त होना संभव नहीं था। मैं तब तुमसे मिलने नहीं आया क्योंकि मुझे भय था।
मैं तुम्हारी..आँखें मेरे अस्थिर मन को विचलित कर देगी, अस्थिर कर देंगे। मैं उसे बख्शना चाहता था। मैं उनसे बचना चाहता था क्योंकि फिर कुछ भी परिणाम हो सकता था। मैं जानता था कि तुम पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, दूसरे तुम से क्या क्या नहीं फिर भी उस संबंध में मैं निश्चित था कि तुम्हारे मन में मेरे लिए कोई वैसा भाव नहीं होगा। और मैं यह आशा लिए हुए चला गया कि एक दिन, एक कल ऐसा आएगा जब मैं तुमसे ये सब कह सकूंगा।
तुम्हें अपने मन के द्वंद का विश्वास दिला सकूंगा। किंतु मैंने यह कभी नहीं सोचा कि द्वंद एक ही व्यक्ति तक सीमित नहीं होता। परिवर्तन एक ही दिशा को व्याप्त नहीं करता। इसीलिए आज यहाँ आकर बिल्कुल व्यर्थता का बोध हो रहा है। लोग सोचते हैं कि मैंने उस जीवन में और उस वातावरण में रहकर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मैं जानता हूँ मैंने वहां रहकर कुछ नहीं लिखा जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही सत्य है। यहाँ के जीवन का संचय है। कुमारसंभव की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। मेघदूत के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह विमर्दितयक्षिणी तुम हो । यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की, अभिज्ञान शाकुंतलम में शकुन्तला के रूप में तुम ही मेरे सामने थी।
मैंने जब जब भी लिखने का प्रयत्न किया, तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को दोहराया और जब भी उससे हटकर देखना चाहा तो रचना प्राणवान नहीं बन पाई। हमें पता है रघुवंश में अज का विलाप मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति है । मैं चाहता था तुम ये सब पढ़ पाती। परंतु हमारा सूत्र कुछ इस तरह से टूट गया कि….’

वाह। मज़ा आ गया।
वाकई मोहन राकेश की भाषा तो अद्भुत है ही और उतना ही अद्भुत पाठ किया राजेंद्र गुप्ता जी ने। आप तो जानते ही हैं कि मोहन राकेश ने अपने नाटकों में एक जो भाषा का इस्तेमाल किया तो शब्द चुने उनमें एक काव्यात्मकता थी और उनमें एक नाटकीय तत्व था। इसी बारे में जब हमने राजेंद्र गुप्ता जी से पूछा तो उन्होंने बताया..
मोहन राकेश अपनी भाषा पर इतना उन्होंने काम किया ड्रामेटिक वर्ड पर कि वो चुनते हैं
अपने विषय से अपनी भाषा को उनके भाषा की अभिव्यक्ति किस तरह से होनी चाहिए। अब देखिए एक तरफ आधे अधूरे है जहाँ बिल्कुल शहरी बोलचाल की भाषा है एकदम खट खट और एक तरफ ये है। क्योंकि वो लिख रहे हैं, वह कालिदास के बारे में कालिदास की कहानी अपने इस नाटक के रूप में कालिदास का विषाद, कालिदास की का अंतरद्वंद और किस तरह से किन हालात से गुजरे हैं तो वो सारा जो दर्द है
उन्होंने किस तरह से ये भी मानते हैं कि मैं मैं मैं अपराधी हूँ। अपनी प्रेमिका का वो सारी बातें वो इसी भाषा में हो सकती थी और जितनी खूबसूरती से वो सामने आती है तो मुझे अपने आप तय हो रही है। सब्जेक्ट अपने आप तय कर रहा है कि किस भाषा में कहां अपने काव्यात्मक होनी चाहिए और किस नाटक में वो एकदम स्ट्रेट होना चाहिए और बड़ा मशहूर हमने होश संभाला, थिएटर जानना शुरू किया तो हमने ये पढ़ा और देखा कि मॉर्डन हिंदी थिएटर के शहरी थिएटर है, दुसरे थिएटर को मैं तो नहीं जानता जो रहा होगा। नौटंकी या गांव का लोक नाट्य को भी मैं जानता नहीं था और हमने नाटकों में सिर्फ देखा है। जीवन में भी हमने ये नहीं देखा - लोक नाट्य, वो मेरे लिए सारी वो बातचीत या वो वाला हिस्सा एक अकैडमी है। दरअसल जीवंत नहीं है जीवंत जो हमारे अनुभव में वो शहरी लोकेटर जिसमें वो मोहन राकेश बड़ा मेजर नाम है, कि आपने धर्मवीर भारती हुए उनका थोड़ा काव्यात्मक वो महाकाव्य है - अंधायुग तो मगर सारा और मॉडर्न थिएटर मजा ही कर्णधार है। उन्होंने ड्रमैटिक वर्ड इतना जबरदस्त काम किया है और उसी वजह से उनके नाटकों में जितनी इकॉनोमी है। शब्दों के शब्दों का तड़के के एक प्रभावशाली नाटक संवाद है वो इसी वजह से कि उन्होंने अपनी मेहनत की है, एक एक शब्द पर तो ये मोहन राकेश के लिए सलाम है।

तो साथियों ये थी हमारी आज की प्रस्तुति और अगले एपिसोड में मिलेंग, हम लोग मशहूर अदाकारा हिमानी शिवपुरी जी से । कृप्या नई धारा के यूट्यूब और सोशल मीडिया चैनल से जुड़े रहें। मुलाकात होती है अगले एपिसोड में नमस्ते।