कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
चँदेरी | कुमार अम्बुज
चंदेरी मेरे शहर से बहुत दूर नहीं है
मुझे दूर जाकर पता चलता है
बहुत माँग है चंदेरी की साड़ियों की
चँदेरी मेरे शहर से इतनी क़रीब है
कि रात में कई बार मुझे
सुनाई देती है करघों की आवाज़
जब कोहरा नहीं होता
सुबह-सुबह दिखाई देते हैं चँदेरी के किले के कंगूरे
चँदेरी की दूरी बस इतनी है
जितनी धागों से कारीगरों की दूरी
मेरे शहर और चँदेरी के बीच
बिछी हुई है साड़ियों की कारीगरी
इस तरफ़ से साड़ी का छोर खींचो तो
दूसरी तरफ़ हिलती हैं चँदेरी की गलियाँ
गलियों की धूल से
साड़ी को बचाता हुआ कारीगर
सेठ के आगे रखता है अपना हुनर
मैं कई रातों से परेशान हूँ
चँदेरी के सपने में दिखाई देते हैं मुझे
धागों पर लटके हुए कारीगरों के सिर
चँदेरी की साड़ियों की दूर-दूर तक माँग है
मुझे दूर जाकर पता चलता है।