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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
आम्र-मंजरियों की गंध | ज्ञानेन्द्रपति
आम्र-मंजरियों की गंध
बसी रही मेरे घर में तुम्हारे जाने के बाद
पिछली बार
अबके तो
तुम्हारे जाने के बाद
आम्र-मंजरियों की गंध उठने लगी है मुझ से भीनी-भीनी