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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
ये भरी आँखें तुम्हारी | कुँअर बेचैन
जागती हैं
रात भर क्यों
ये भरी आँखें तुम्हारी!
क्या कहीं दिन में
तड़पता स्वप्न देखा
सुई जैसी चुभ गई क्या
हस्त-रेखा
बात क्या थी
क्यों डरी आँखें तुम्हारी।
जागती हैं रात भर क्यों,
ये भरी आँखें तुम्हारी!
लालसा थी
क्या उजेरा देखने की
चाँद के चहुँ ओर
घेरा देखने की
बन गईं क्यों
गागरी आँखें तुम्हारी।
जागती है रात भर क्यों,
ये भरी आँखें तुम्हारी!