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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए | दुष्यंत कुमार
होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए
इस परकटे परिन्दे की कोशिश तो देखिए।
गूंगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में,
सरकार के खिलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।
बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन,
सूखा मचा रही ये बारिश तो देखिए।
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें,
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए ।
जिसने नज़र उठाई वही शख्स गुम हुआ,
इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिए।