Subscribe
Share
Share
Embed
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
वह चेहरा | कुलदीप कुमार
आज फिर दिखीं वे आँखें
किसी और माथे के नीचे
वैसी ही गहरी काली उदास
फिर कहीं दिखे वे सांवले होंठ
अपनी ख़ामोशी में अकेले
किन्हीं और आँखों के तले
झलकी पार्श्व से वही ठोड़ी
दौड़कर बस पकड़ते हुए
देखे वे केश
लाल बत्ती पर रुके-रुके
अब कभी नहीं दिखेगा
वह पूरा चेहरा?