Pratidin Ek Kavita

मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता | शहंशा आलम 

मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता
तुम्हारे लिए
बुद्ध की मुस्कराहट
ज़रूर बनना चाहता हूँ
बुद्ध मर जाते हैं
जिस तरह पिता मर जाते हैं
किसी जुमेरात की रात को
बुद्ध की मुस्कान लेकिन
जीवित रहती है हमेशा
मेरे होंठों पर ठहरकर
जिस मुस्कान पर
तुम मर मिटती हो
तेज़ बारिश के दिनों में।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता | शहंशा आलम

मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता
तुम्हारे लिए
बुद्ध की मुस्कराहट
ज़रूर बनना चाहता हूँ
बुद्ध मर जाते हैं
जिस तरह पिता मर जाते हैं
किसी जुमेरात की रात को
बुद्ध की मुस्कान लेकिन
जीवित रहती है हमेशा
मेरे होंठों पर ठहरकर
जिस मुस्कान पर
तुम मर मिटती हो
तेज़ बारिश के दिनों में।