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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
चिट्ठी है किसी दुखी मन की | कुँवर बेचैन
बर्तन की यह उठका-पटकी
यह बात-बात पर झल्लाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
यह थकी देह पर कर्मभार
इसको खाँसी, उसको बुखार
जितना वेतन, उतना उधार
नन्हें-मुन्नों को गुस्से में
हर बार, मारकर पछताना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
इतने धंधे! यह क्षीणकाय-
ढोती ही रहती विवश हाय
खुद ही उलझन, खुद ही उपाय
आने पर किसी अतिथि जन के
दुख में भी सहसा हँस जाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।