कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
रचना की आधीरात | केदारनाथ सिंह
अन्धकार! अन्धकार! अन्धकार
आती है
कानों में
फिर भी कुछ आवाज़ें
दूर बहुत दूर
कहीं
आहत सन्नाटे में
रह- रहकर
ईटों पर
ईटों के रखने की
फलों के पकने की
ख़बरों के छपने की
सोए शहतूतों पर
रेशम के कीड़ों के
जगने की
बुनने की.
और मुझे लगता है
जुड़ा हुआ इन सारी
नींदहीन ध्वनियों से
खोए इतिहासों के
अनगिनत ध्रुवांतों पर
मैं भी रचना- रत हूँ
झुका हुआ घंटों से
इस कोरे काग़ज़ की भट्ठी पर
लगातार
अन्धकार! अन्धकार ! अन्धकार !